छोड़ो अब उस चराग़ का चर्चा बहुत हुआ अपना तो सब के हाथों ख़सारा बहुत हुआ क्या बे-सबब किसी से कहीं ऊबते हैं लोग बावर करो कि ज़िक्र तुम्हारा बहुत हुआ बैठे रहे कि तेज़ बहुत थी हवा-ए-शौक़ दश्त-ए-हवस का गरचे इरादा बहुत हुआ आख़िर को उठ गए थे जो इक बात कह के हम सुनते हैं फिर उसी का इआदा बहुत हुआ मिलने दिया न उस से हमें जिस ख़याल ने सोचा तो इस ख़याल से सदमा बहुत हुआ अच्छा तो अब सफ़र हो किसी और सम्त में ये रोज़-ओ-शब का जागना सोना बहुत हुआ