दिल-ए-शिकस्ता की नीम-जाँ ख़्वाहिशों को जीना सिखा रही है निगाह-ए-अफ़्सूँ-बयान उस की बुतों से सज्दा करा रही है ये फूल ख़ुश्बू ये चाँद-तारे ये गिरती बूँदें ये अब्र-पारे सब उस की आमद के मुंतज़िर हैं वो ख़ुद को सबसे छुपा रही है ये चाँदनी में नहाया दरिया ये महफ़िल-ए-शब भी ख़ूब लेकिन मैं चाँद पर जा रहा हूँ मुझ को वो इक ज़ईफ़ा बुला रही है जो रेग-ए-दिल पे लिखा है उस को दुखों का पानी मिटा न डाले मैं ख़्वाब देखे ही जा रहा हूँ ये आँख बरसे ही जा रही है कभी ख़मोशी कभी तबस्सुम कभी ख़यालों की धुँद में गुम मिरी उदासी तो हर क़दम पर क़बा बदलती ही जा रही है वो ख़ुश-बयाँ 'इम्तियाज़' वो लफ़्ज़ लफ़्ज़ जादू चलाने वाला वो कल मिला था तो कह रहा था ख़मोशी अंदर से खा रही है