छुपा हर चंद तेरा दर्द-ए-पिन्हाँ हम समझते हैं कि सच है अहल-ए-ग़म ही दूसरों का ग़म समझते हैं कोई हम सा न होगा चाहने वाला तुझे हमदम नमक-पाशी को तेरी ज़ख़्म का मरहम समझते हैं मुफ़क्किर फ़लसफ़ी साइंसदाँ जो भी समझते हों जहाँ को हम मआल-ए-लग़्ज़िश-ए-आदम समझते हैं कभी नाज़ुक मसाइल पर न करना गुफ़्तुगू उन से नए फ़ित्ने जगाया करते हैं जो कम समझते हैं हर अफ़्साने में है पिन्हाँ मिरे ग़म का कोई पहलू तभी तो सब मिरे ग़म को ग़म-ए-आलम समझते हैं