छुपा कर सब की नज़रों से सदा पर्दे में रक्खा है हज़ारों राज़ ऐसे हैं जिन्हें सीने में रक्खा है कभी सर की कभी जाँ की कभी उस ज़ात-ए-परवर की हमेशा तेरी क़समों ने मुझे धोके में रक्खा है यहीं से राह चुनने का सबक़ देना ज़रूरी है अभी बचपन किताबों की तरह बस्ते में रक्खा है जहाँ इक दूसरे को हम सदा दुश्मन समझते हैं सियासत ने हमेशा हम को उस पाले में रक्खा है किसी भी वक़्त साँसों की ये डोरी टूट सकती है हमारा जिस्म तो हर पल किसी खाते में रक्खा है अंधेरा आ नहीं सकता कभी तन्हाई का 'मश्कूर' उजाला तेरी यादों का मिरे कमरे में रक्खा है