कैफ़ियत-ए-दिल-ए-हज़ीं हम से नहीं बयाँ हुई लफ़्ज़ न साथ दे सके आँसुओं से अयाँ हुई शोरिश-ए-वारदात-ए-क़ल्ब शेरों में ढाल ढाल कर लिखते रहे तमाम उम्र ख़त्म न दास्ताँ हुई अब न वो दिल में धड़कनें अब न वो सोज़-ओ-साज़ है पूछते हैं वफ़ात-ए-दिल कैसे हुई कहाँ हुई मेरी ज़रा सी बात पर जाने वो क्यूँ ख़फ़ा हुई कोई न तल्ख़ गुफ़्तुगू दोनों के दरमियाँ हुई घर तो हज़ारों बन गए ईंटों को जोड़ जोड़ कर घर के मकीनों की वफ़ा ज़ीनत-ए-आशियाँ हुई सूरत थी वो कि बर्क़ सी बदलियों की थी ओट में पर्दों से झाँक झाँक कर पर्दों में ही निहाँ हुई एक ही शाख़ पर रहे बाढ़ में साँप और आदमी कैसी अजीब दोस्ती दोनों के दरमियाँ हुई