छुपाए क्या कोई दर्द-ए-जिगर को मोहब्बत रंग देती है नज़र को तुम्हारा हुस्न तुम पर कब खिला था दुआएँ दो मेरे ज़ौक़-ए-नज़र को पयाम-ए-अहल-ए-दिल क्या जाने कोई नज़र वाले समझते हैं नज़र को बुलंद इतना तो हो ज़ौक़-ए-तमाशा निगाह-ए-हुस्न ख़ुद ढूँडे नज़र को ज़रा रुक रुक के हर पर्दा उठाना कहीं जल्वे न गुम कर दें नज़र को सलामत इन्क़िलाबात-ए-ज़माना नई राहें मिलीं फ़िक्र-ओ-नज़र को जहाँ होती है दिल को राह दिल से नज़र पहचान लेती है नज़र को नज़र दे तो शुऊ'र-ए-दीद भी दे नहीं तो क्या करूँ ले कर नज़र को तजल्ली ख़ुद नज़र बनती है लेकिन मिटा कर एतिबारात-ए-नज़र को उन्हें देखे मुजस्सम दीद हो कर शुऊ'र इतना कहाँ है हर नज़र को ख़याल उन का जहाँ भी 'शौक़' आया नज़र तय कर गई हद्द-ए-नज़र को