छुपता नहीं नक़ाब में जल्वा शबाब का निकले है छन के तारों से नूर आफ़्ताब का कुछ दिल से अपने पूछ के वा'इज़ हमें बता यूँ बार-बार दे न हवाला किताब का कौसर के साथ-साथ है तसनीम भी वहीं नक़्शा तो ख़ूब खींचा है वा'इज़ सराब का कब तक मरेंगे आस में इंसाफ़ की बशर क्यों मुंतज़िर है मौला तू रोज़-ए-हिसाब का आग़ाज़-ए-काएनात की थी जिस में दास्ताँ लगता है फट गया है वो पन्ना किताब का कुछ अपना इर्द-गिर्द बदल कर दिखा 'सदा' नाहक़ पढ़ा न सब को सबक़ इंक़लाब का