छुरियाँ चलीं शब दिल ओ जिगर पर लानत है इस आह-ए-बे-असर पर बालों ने तिरे बला दिखा दी जब खुल के वो आ रही कमर पर नामे को मिरे छुपा रखेगा था ये तो गुमाँ न नामा-बर पर फिरते हैं झरोकों के तले शाह उस कू में उमीद-ए-यक-नज़र पर क्या जागा है ये भी हिज्र की शब ज़र्दी सी है क्यूँ रुख़-ए-क़मर पर फिर ग़ैरत-ए-इश्क़ ने बिठाए दरबाँ शदीद उस के दर पर रहती हैं ब-वक़्त-ए-गिर्या अक्सर दो उँगलियाँ अपनी चश्म-ए-तर पर है इश्क़ सुख़न का 'मुसहफ़ी' को माइल नहीं इतना सीम-ओ-ज़र पर