चोट खा कर जो मुस्कुराते हैं हर बला से नजात पाते हैं तेरे बंदे ख़ुदा नहीं बनते दूसरों को ख़ुदा बनाते हैं मौत से जो वफ़ा नहीं करते ज़िंदगी से शिकस्त खाते हैं वो हरीफ़-ए-नज़र कभी न हुए आइने हैं कि टूटे जाते हैं हम किसी का गिला नहीं करते वक़्त की आबरू बढ़ाते हैं हादसों से फ़रार क्या मा'नी हादसे ज़िंदगी बनाते हैं हम कि अपनी तरफ़ न देख सके लोग उन से नज़र मिलाते हैं वक़्त की रौशनी पे नाज़ न कर वक़्त के रुख़ बदल भी जाते हैं ज़िक्र-ए-इल्म-ओ-अदब न छेड़ 'अंजुम' हज़रत-ए-'फ़ौक़' याद आते हैं