चोट पर चोट खा रहा हूँ मैं आदतन मुस्कुरा रहा हूँ मैं उस के ऊपर तो कुछ असर ही नहीं अपना दिल क्यों जला रहा हूँ मैं आज तन्हाई में जो बैठे हो क्या तुम्हें याद आ रहा हूँ मैं कौन आएगा मुझ से मिलने को अपना घर क्यों सजा रहा हूँ मैं आज जी भर के देख लो मुझ को अब बहुत दूर जा रहा हूँ मैं क्या तुम्हें अब भी कुछ शिकायत है अब तो सब कुछ कमा रहा हूँ मैं हाथ में डिग्रियाँ सजाए हुए ठोकरें कितनी खा रहा हूँ मैं अब मुझे पेट इन से भरना है ये जो ख़ंजर बना रहा हूँ मैं कल कोई इस को भी न छोड़ेगा ये जो पौदा लगा रहा हूँ मैं