चोट पर चोट लगती जाती है याद-ए-माज़ी मुझे सताती है ज़िंदगी तो ग़मों का दफ़्तर है ख़्वाब में भी ख़ुशी न आती है दूरियाँ काश ये सिमट जातीं अब जुदाई सही न जाती है हों वो राज़ी तो बाग़ बाग़ है दिल वो जो रूठें तो जान जाती है जब से उन से उलझ गईं आँखें चीज़ कोई मुझे न भाती है उम्र मेरी भी उन को लग जाए लब पे 'नासिर' दुआ ये आती है