चुभेंगे ख़ार तो रस्तों पे चलना छोड़ दोगे क्या कहो मंज़िल को पाने का इरादा छोड़ दोगे क्या मोहब्बत की है तो अंजाम तक पहुँचा भी दो इस को दिल-ए-नाकाम को यूँही तड़पता छोड़ दोगे क्या हमें भी जानिब-ए-मंज़िल उसी रस्ते से जाना है हमारे वास्ते थोड़ा सा रस्ता छोड़ दोगे क्या हज़ारों हादसे होते हैं लोगों रोज़ सड़कों पर घरों से मौत के डर से निकलना छोड़ दोगे क्या अगर तुम से कहे कोई कि शेर-ओ-शायरी छोड़ो 'अजय' तुम 'मीर' और 'ग़ालिब' को पढ़ना छोड़ दोगे क्या