चुप-चाप हब्स-ए-वक़्त के पिंजरे में मर गया झोंका हवा का आते ही कमरे में मर गया सूरज लिहाफ़ ओढ़ के सोया तमाम रात सर्दी से इक परिंदा दरीचे में मर गया जो नाख़ुदा को कह न सका उम्र भर ख़ुदा वो शख़्स कल अना के जज़ीरे में मर गया एडीटरी ने काट दीं तख़्लीक़ की रगें अच्छा-भला अदीब रिसाले में मर गया सूरज ने आँसुओं की तवानाई छीन ली शबनम सा शख़्स धूप के क़स्बे में मर गया इस मर्तबा भी सच्ची गवाही उसी ने दी इस मर्तबा मगर वो कटहरे में मर गया 'नासिक' वो अपनी ज़ात में मंज़िल से कम न था वो रह-रव-ए-हयात जो रस्ते में मर गया