चुरा रहा है ख़ज़ाने न आज कल से मिरे ये दुज़्द-ए-उम्र तआ'क़ुब में है अज़ल से मिरे ये कज-अदा मुझे अच्छे दिनों से जानती है बड़े मरासिम-ए-दैरीना हैं ग़ज़ल से मिरे दिखा दिखा के नए मंज़रों का ख़ाली-पन दरख़्त हाथ मिलाते हैं दस्त-ए-शल से मिरे वो आँख सो गई वो चाँदनी भी रूठ गई मुकालमे न मुकम्मल हुए कँवल से मिरे छबेली ले गई यारों को क्यों पस-ए-महताब गिले ग़ज़ब के हैं दोशीज़ा-ए-अजल से मिरे