ग़ुबार-ए-वक़्त में बे-रंग-ओ-बू पड़ा हुआ मैं खड़ा हूँ अरसा-ए-आफ़ाक़ में थका हुआ मैं तिरी निगाह-ए-निगारिश-तलब को क्या मालूम कि हर्फ़-ओ-सौत से गुज़रा तो क्या से क्या हुआ मैं नुजूम बुझते हुए कह रहे हैं सुब्ह ब-ख़ैर मगर वो पलकें और उन में कहीं जड़ा हुआ मैं ये देखने को कि फ़ितरत कहाँ बदलती है वो रूठने ही लगा था कि बे-वफ़ा हुआ मैं लिबास शाइ'री करता है हुस्न-ए-क़ामत पर ये बे-सबब तो नहीं आइना बना हुआ मैं हवा-ए-सुब्ह-वतन इक ज़रा कुमक कि कहीं दिखाई दूँ लब-ए-अहबाब पर खिला हुआ मैं ये दिल वरक़ है किसी गुम-शुदा सहीफ़े का सो क्या पढ़ूँ ख़त-ए-तनसीख़ से भरा हुआ मैं हिसाब-ए-दोस्त दिल-ए-दोस्त में रहा 'तालिब' फिर इस्तिआरों किनायों में ख़र्च सा हुआ मैं