क्यूँ आँख से सुर्ख़ी अब छलकी हुई लगती है ये नींद की रानी भी रूठी हुई लगती है यादों का तसलसुल है घनघोर जुदाई है सावन की तरह ये भी छाई हुई लगती है सूझे न मुदावा क्यूँ ख़ुद मेरे मसीहा को ज़ख़्मों की तरह चाहत रिसती हुई लगती है आवाज़ ये किस ने दी फिर याद ये कौन आया बे-ताबी-ए-दिल कुछ कुछ संभली हुई लगती है गुज़री है गुलाबों को दामन में ख़िज़ाँ भर के हर शाख़-ए-चमन लेकिन महकी हुई लगती है बाज़ार-ए-मोहब्बत के ताजिर हैं सितम-पेशा ऐ 'बानो' तिरी क़ीमत लगती हुई लगती है