क्यूँ असीर-ए-गेसू-ए-ख़म-दार-ए-क़ातिल हो गया हाए क्या बैठे-बिठाए तुझ को ऐ दिल हो गया कोई नालाँ कोई गिर्यां कोई बिस्मिल हो गया उस के उठते ही दिगर-गूँ रंग-ए-महफ़िल हो गया इंतिज़ार उस गुल का इस दर्जा क्या गुलज़ार में नूर आख़िर दीदा-ए-नर्गिस का ज़ाइल हो गया उस ने तलवारें लगाईं ऐसे कुछ अंदाज़ से दिल का हर अरमाँ फ़िदा-ए-दस्त-ए-क़ातिल हो गया क़ैस-ए-मजनूँ का तसव्वुर बढ़ गया जब नज्द में हर बगूला दश्त का लैला-ए-महमिल हो गया ये भी क़ैदी हो गया आख़िर कमंद-ए-ज़ुल्फ़ का ले असीरों में तिरे 'आज़ाद' शामिल हो गया