गया तो हुस्न न दीवार में न दर में था वो एक शख़्स जो मेहमान मेरे घर में था नजात धूप से मिलती तो किस तरह मिलती मिरा सफ़र तो मियाँ दश्त-ए-बे-शजर में था ग़म-ए-ज़माना की नागन ने डस लिया सब को वही बचा जो तिरी ज़ुल्फ़ के असर में था खुली जो आँख तो अफ़्सून-ए-ख़्वाब टूट गया अभी अभी कोई चेहरा मिरी नज़र में था न आई घर में कभी इक किरन भी सूरज की अगरचे मेरा मकाँ वादी-ए-सहर में था मिला न घर से निकल कर भी चैन ऐ 'ज़ाहिद' खुली फ़ज़ा में वही ज़हर था जो घर में था