क्यूँ न हों शाद कि हम राहगुज़र में हैं अभी दश्त-ए-बे-सब्ज़ में और धूप नगर में हैं अभी सुर्ख़ आज़र ही मिरे ज़ख़्मों पे न हो यूँ मसरूर कई शहपर मिरे टूटे हुए पर में हैं अभी इन धुँदलकों की हर इक चाल तो शातिर है मगर नुक़रई नक़्श मिरे दस्त-ए-हुनर में हैं अभी उम्र भर मैं तो रहा ख़ाना-बदोशी में इधर कुछ कबूतर मिरे अस्लाफ़ के घर में हैं अभी एक मुद्दत से कोई सब्ज़ न उभरा इस में घोंसले चील के बे-बर्ग शजर में हैं अभी शहर की धूल फ़ज़ाएँ ही मुक़द्दर में रहीं आम के बोर मगर मेरी नज़र में हैं अभी राख के ढेर पे मातम न करो देखो भी कई शोले किसी बे-जान शरर में हैं अभी एक साहिर कभी गुज़रा था इधर से 'अम्बर' जा-ए-हैरत कि सभी उस के असर में हैं अभी