क्यूँ न हूँ हैराँ तिरी हर बात का हुस्न मुरक़्क़ा है तिलिस्मात का रोऊँ तो ख़ुश हो के पिए है वो मय समझे है मौसम इसे बरसात का उठती जवानी जो है तो दिन-ब-दिन और ही आलम है कुछ इस गात का घर में बुलाया है तो कुछ मुँह से दो सीखो ये ढब हम से मुदारात का शैख़ जवाँ होगा तू पी देख इसे शीशे में पानी है करामात का हम न मिलें तुम से तो निकले है जाँ और तुम्हें आलम है मुसावात का उस ने की अब कम-सुख़नी इख़्तियार जिस को मज़ा था मिरी हर बात का आँख भी मिलती है तो ना-आश्ना अब वो कहाँ लुत्फ़ इशारात का रोने की जा है सुन इसे हम-नशीं तू तो है महरम मिरे औक़ात का हुक्म हुआ रात को आओ न याँ दिन को रखो तौर मुलाक़ात का दिल के अटकते ही हुआ है सितम फ़र्क़ मुलाक़ात में दिन रात का बात नई सूझे है 'जुरअत' तुझे मैं तो हूँ आशिक़ तिरी इस बात का