कुछ मुँह से देने कह वो बहाने से उठ गया हर्फ़-ए-सख़ावत आह ज़माने से उठ गया है उस के देखने की हवस क्या ग़ज़ब कि आह जो तुंद-ख़ू टुक आँख उठाने से उठ गया पूछी जो उस से मैं दिल-ए-सद-चाक की ख़बर उलझा के अपनी ज़ुल्फ़ वो शाने से उठ गया कहियो सबा जो होवे गुज़र यार की तरफ़ दिल सब तरफ़ से आप के जाने से उठ गया पाया जो मुज़्तरिब मुझे महफ़िल में तो वहीं शर्मा के कुछ वो अपने-बेगाने से उठ गया होता था अपने जाने से जिस को क़लक़ सो हाए घबरा के आज क्या मिरे आने से उठ गया हमदम न मुझ को क़िस्सा-ए-ऐश-ओ-तरब सुना मुद्दत से दिल कुछ ऐसे फ़साने से उठ गया जब तक तू आए आए कि दुनिया ही से कोई ले जान तेरे देर लगाने से उठ गया 'जुरअत' हम इस ज़मीन में कहते हैं और शेर हर-चंद जी सुख़न के बढ़ाने से उठ गया