दबा जो राख की तह में शरर न ख़त्म हुआ भड़क उठेगा दबाव अगर न ख़त्म हुआ लरज़ रहे हैं मुसाफ़िर के रौंगटे अब तक पनाह-गह में भी लुटने का डर न ख़त्म हुआ मिलें जो राह में देखें न आँख भर कर हम घटा है रब्त मगर इस क़दर न ख़त्म हुआ रचा हुआ है तजस्सुस का सम फ़ज़ाओं में अजब फ़साना था अंजाम पर न ख़त्म हुआ हर एक सम्त से फूट आई हैं नई शाख़ें तने के कटने से नाम-ए-शजर न ख़त्म हुआ उठा के दोस्त मुझे चल दिए हैं काँधों पर हयात ख़त्म हुई पर सफ़र न ख़त्म हुआ फ़सील-ए-जब्र में देखे उसी के सपने 'जान' किसी भी हाल में ज़ौक़-ए-नज़र न ख़त्म हुआ