दाएरे पर ही कहीं हूँ कोई मंक़ूत-ए-वजूद गुम्बद-ए-नीली का मैं नुक़्ता-ए-परकार नहीं मैं ज़मीं पर तो मुक़य्यद हूँ मगर दम में है दम आसमाँ भी तो मकाँ है प हवा-दार नहीं अब तिरे बाद किसे देखूँ कोई है तो बता अब कोई ज़ुल्फ़-ए-तरह-दार तरह-दार नहीं वर्ना सहरा से बड़ा शहर न होता कोई फ़ितरत-ए-रेग में अफ़राज़ी-ए-दीवार नहीं मैं तिरे हुस्न की क़ीमत तो लगाने से रहा ये मिरा दिल है कोई मिस्र का बाज़ार नहीं आसमाँ पर है ज़मीं अर्श की मानिंद मुक़ीम और उस अर्श पे जुज़ अहमद-ए-मुख़्तार नहीं उस के आने से कहीं दूर चले जाते हैं सच कहूँ चाँद से तारों को ज़रा प्यार नहीं सुन्नत-ए-हिजरत-ए-यसरब पे भी चलता लेकिन ग़ार हर राह में मौजूद है पर यार नहीं