ज़ानू पर उस के रात रहा सर तमाम रात पेश-ए-नज़र रहा रुख़-ए-दिलबर तमाम रात किस से कहूँ कटी मिरी क्यूँकर तमाम रात तड़पा किया मिरा दिल-ए-मुज़्तर तमाम रात बैठा रहा हूँ शाम से अक्सर तमाम रात गिनता रहा हूँ हिज्र में अख़्तर तमाम रात ऐसा बँधा तसव्वुर-ए-अबरू कि ख़्वाब में काटा किया गला दम-ए-ख़ंजर तमाम रात क्या जानता है वहशत-ए-शब-हा-ए-तार को काटी हो जैसे शम्अ जला कर तमाम रात हो गरचे बे-नवा वही सुल्तान-ए-वक़्त है जिस को है वस्ल-ए-यार मयस्सर तमाम रात ऐ 'आजिज़' उन की क्यों न दुआ मुस्तजाब हो करते हैं जो इबादत-ए-दावर तमाम रात