दाग़-ए-दिल ग़म की तपिश से यूँ सर-ए-शाम जले अपनी नाकामी पे जैसे कोई नाकाम जले उन के जलवों की चमक है कि दहकते शो'ले देखने वाले ये समझे कि दर-ओ-बाम जले जूँही साक़ी ने मिरी सम्त बढ़ाया साग़र मय-कदे में कई रिंदान-ए-तही-जाम जले यूँ जला करता है दिल में तिरी फ़ुर्क़त का चराग़ जैसे तुर्बत पे कोई शम्अ सर-ए-शाम जले अहल-ए-इरफ़ाँ को परस्तार-ए-मोहब्बत पा कर आतिश-ए-रश्क-ओ-हसद में कई असनाम जले बात कहने की नहीं फिर भी कहे देते हैं हम तिरे ग़म से कभी सुब्ह कभी शाम जले देख कर 'बासित'-ए-ख़ुद्दार-तबीअत तुझ को क्या तअ'ज्जुब है अगर गर्दिश-ए-अय्याम जले