दाग़-ए-ग़म दिल से किसी तरह मिटाया न गया मैं ने चाहा भी मगर तुम को भुलाया न गया उम्र भर यूँ तो ज़माने के मसाइब झेले तेरी नज़रों का मगर बार उठाया न गया रूठने वालों से इतना कोई जा कर पूछे ख़ुद ही रूठे रहे या हम से मनाया न गया फूल चुनना भी अबस सैर-ए-बहाराँ भी फ़ुज़ूल दिल का दामन ही जो काँटों से बचाया न गया उस ने इस तरह मोहब्बत की निगाहें डालीं हम से दुनिया का कोई राज़ छुपाया न गया थी हक़ीक़त में वही मंज़िल-ए-मक़्सद 'जज़्बी' जिस जगह तुझ से क़दम आगे बढ़ाया न गया