'दाग़' उस बज़्म में मेहमान कहाँ जाता है तेरा अल्लाह निगहबान कहाँ जाता है पाँव से मेरे बयाबान कहाँ छुटता है हाथ से मेरे गरेबान कहाँ जाता है ग़ैर जाता था वहाँ मैं ने ये कह कर रोका तुझ से कुछ जान न पहचान कहाँ जाता है हिज्र के दिन की मुसीबत तो गुज़र जाएगी वस्ल की रात का एहसान कहाँ जाता है रूठ कर बज़्म से उट्ठा तो न रोका मुझ को न कहा उस ने कहा मान कहाँ जाता है बंद करते हो जो हाथों से तुम आँखें मेरी क्या कहूँ मैं कि मिरा ध्यान कहाँ जाता है 'दाग़' तुम ने तो बड़ी धूम से की तय्यारी आज ये ईद का सामान कहाँ जाता है