दहकते क्यों नहीं ऐ दिल बुझे अंगार हो क्या रुकी है जो ज़बाँ तक आ के वो गुफ़्तार हो क्या तसर्रुफ़ क़ल्ब-ओ-जाँ पर अब तख़य्युल का नहीं क्यों ख़ुद अपनी फ़िक्र की कश्ती की तुम मंजधार हो क्या नजात-ए-रूह पाने के लिए कुछ तो लिखो अब उबलते क्यों नहीं बर्फ़ाब की तुम धार हो क्या ग़ज़ल कहते नहीं बनती जुमूद-ए-ज़ह्न क्यों हो महकते क्यों नहिं ऐ दिल चमन के ख़ार हो क्या इसी आवाज़ से हर-सू फ़ज़ाओं में खनक थी मुखरते क्यों नहीं ऐ 'नाज़ली' बीमार हो क्या