दाइमी दर्द की कहानी है कैसी बे-दर्द ज़िंदगानी है जब से शहर-ए-सनम से निकले हैं सिर्फ़ और सिर्फ़ ला-मकानी है मैं अभी तक वही दिवाना हूँ कैफ़ियत भी वही पुरानी है क्या न हासिल हुआ हमें फिर भी क्यों ये एहसास-ए-राइगानी है इश्क़ होता अगर लहू होता पर तिरी आँख में तो पानी है आ के ख़्वाबों में लौट जाते हो वस्ल कैसा ये ख़ुश-गुमानी है फिर बिछड़ना भी है तुम्हें मुझ से मुझ को आवाज़ भी लगानी है रुक भी जाए तो ग़म नहीं होगा अब ये धड़कन किसे सुनानी है कोई मज़हब नहीं है ख़तरे में सब सियासत की लन-तरानी है क्या है 'अफ़रंग' हैसियत अपनी बस-कि यारों की क़द्रदानी है