दम हवा के सिवा कुछ और नहीं बुत ख़ुदा के सिवा कुछ और नहीं शेर-फ़हमी कहाँ कि अब लब पर मर्हबा के सिवा कुछ और नहीं आदमी है मगर अधूरा है पारसा के सिवा कुछ और नहीं राह-ए-हस्ती की मंज़िल-ए-मौहूम नक़्श-ए-पा के सिवा कुछ और नहीं इब्तिदा दर्द-ए-दिल की क्या कहिए इंतिहा के सिवा कुछ और नहीं अपनी पहचान आप पैदा कर तू 'ज़िया' के सिवा कुछ और नहीं