कूचे से निकलवाते हो अबस हम ऐसे वतन-आवारों को रहने दो पड़े हैं एक तरफ़ दुख देते हो क्यूँ बे-चारों को रोगी जो तुम्हारे इश्क़ के हैं जीते हैं तुम्हारी आस पे वो दो चार दिनों पे ख़ुदा के लिए देखा तो करो बीमारों को हम-शक्ल किसी मिज़्गाँ के जो थे तो दिल में हमारे चुभना था अफ़्सोस कि ऐ सहरा-ए-जुनूँ चुभना भी न आया ख़ारों को हर शहर में है सन्नाटा सा हर कूचे में ख़ाक उड़ती है जिस दिन से तिरे दीवानों ने आबाद किया कोहसारों को थोड़ी सी रही है रात 'ज़िया' कुछ माँग दुआएँ ख़ालिक़ से बेहतर है इसी में हो जो सहर फिर शाम से गिनना तारों को