दमक उठी है फ़ज़ा माहताब-ए-ख़्वाब के साथ धड़क रहा है ये दिल किस रबाब-ए-ख़्वाब के साथ हटे ग़ुबार जो लौ से तो मेरी जोत जगे जलूँ मैं फिर से नई आब-ओ-ताब-ए-ख़्वाब के साथ है सौ अदाओं से उर्यां फ़रेब-ए-रंग-ए-अना बरहना होती है लेकिन हिजाब-ए-ख़्वाब के साथ तो क्यूँ सज़ा में हो तन्हा गुनाहगार कोई यहाँ तो जीते हैं सब इर्तिकाब-ए-ख़्वाब के साथ शरार-ए-संग से संगलाख़ हो गए तलवे हुआ न कुछ दिल-ए-ख़ाना-ख़राब-ए-ख़्वाब के साथ सुलाये रक्खा हमें भी फ़रेब-ए-मंज़िल ने चले थे हम भी किसी हम-रकाब-ए-ख़्वाब के साथ सुराग़ मिलता नहीं प्यास के सफ़ीनों का भँवर भी होते हैं शायद सराब-ए-ख़्वाब के साथ हक़ीक़तों की चटानों पे चल गया जादू लो वो भी चलने लगीं अब सहाब-ए-ख़्वाब के साथ अजब नहीं वही मंज़र नज़ारा बन जाए डरा रहा है ये डर इज़्तिराब-ए-ख़्वाब के साथ दराड़ें रह गईं बेदारियों के नक़्शे पर न हम रहे न वो तुम इंक़लाब-ए-ख़्वाब के साथ निगाह-ए-दीदा-ए-ता'बीर के हवाले 'ख़लिश' है ये बयाज़ अलग इंतिख़ाब-ए-ख़्वाब के साथ