दामन पे लहू हाथ में ख़ंजर न मिलेगा मिल जाएगा फिर भी वो सितमगर न मिलेगा पत्थर लिए हाथों में जिसे ढूँड रहा है वो तुझ को तिरी ज़ात से बाहर न मिलेगा आँखों में बसा लो ये उभरता हुआ सूरज दिन ढलने लगेगा तो ये मंज़र न मिलेगा मैं अपने ही घर में हूँ मगर सोच रहा हूँ क्या मुझ को मिरे घर में मिरा घर न मिलेगा गुज़रो किसी बस्ती से ज़रा भेस बदल कर नक़्शे में तुम्हें शहर-ए-सितमगर न मिलेगा