दामन-ए-ज़ीस्त ग़म से भर डाला बेवफ़ा तुझ से प्यार कर डाला इतना एहसास बन चुका हूँ मैं अपना एहसास क़त्ल कर डाला हम ने माज़ी से राब्ता करके अपने ज़ख़्मों को आज भर डाला जिस की ख़ातिर हुए हैं हम रुस्वा वो भी अहद-ए-वफ़ा मक्र डाला उस को मंज़िल तो बख़्श दी मालिक मेरे हिस्से में क्यों सफ़र डाला सब को तुझ से अता हुई ने'मत मेरी दुनिया में बस सफ़र डाला दिल तो पहले ही लुट गया 'काशिफ़' अपनी ग़ज़लों में फिर जिगर डाला