दम-ए-अख़ीर भी हम ने ज़बाँ से कुछ न कहा जहाँ से उठ गए अहल-ए-जहाँ से कुछ न कहा चली जो कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ तो चलने दी रुकी तो कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ से कुछ न कहा ख़ता-ए-इश्क़ की इतनी सज़ा ही काफ़ी थी बदल के रह गए तेवर ज़बाँ से कुछ न कहा बला से ख़ाक हुआ जल के आशियाँ अपना तड़प के रह गए बर्क़-ए-तपाँ से कुछ न कहा गिला किया न कभी उन से बेवफ़ाई का ज़बाँ थी लाख दहन में ज़बाँ से कुछ न कहा ख़ुशी से रंज सहे 'नाज़' उम्र भर हम ने ख़ुदा-गवाह कभी आसमाँ से कुछ न कहा