दाम-ए-ख़ुशबू में गिरफ़्तार सबा है कब से लफ़्ज़ इज़हार की उलझन में पड़ा है कब से ऐ कड़ी चुप के दर ओ बाम सजाने वाले मुंतज़िर कोई सर-ए-कोह-ए-निदा है कब से चाँद भी मेरी तरह हुस्न-शनासा निकला उस की दीवार पे हैरान खड़ा है कब से बात करता हूँ तो लफ़्ज़ों से महक आती है कोई अन्फ़ास के पर्दे में छुपा है कब से शोबदा-बाज़ी-ए-आईना-ए-एहसास न पूछ हैरत-ए-चश्म वही शोख़ क़बा है कब से देखिए ख़ून की बरसात कहाँ होती है शहर पर छाई हुई सुर्ख़ घटा है कब से कोर-चश्मों के लिए आईना-ख़ाना मालूम वर्ना हर ज़र्रा तिरा अक्स-नुमा है कब से खोज में किस की भरा शहर लगा है 'अमजद' ढूँडती किस को सर-ए-दश्त हवा है कब से