दाना-ए-ग़म न महरम-ए-राज़-ए-हयात हम धड़का रहे हैं फिर भी दिल-ए-काएनात हम हाँ इक निगाह-ए-लुत्फ़ के हक़दार थे ज़रूर माना कि थे न क़ाबिल-ए-सद-इल्तिफ़ात हम बीम-ए-ख़िज़ाँ से किस को मफ़र था मगर नसीम करते रहे गुलों से निखरने की बात हम ऐ शम्अ दिलबरी तिरी महफ़िल से बार-हा ले कर उठे हैं सोज़-ए-ग़म-ए-काएनात हम ढूँडा किए हैं राह-ए-हवस रह-रवान-ए-शौक़ देखा किए हैं लग़्ज़िश-ए-पा-ए-सबात हम उन के ग़मों का हाए सहारा न पूछिए कुछ पा गए हैं अपने ग़मों से नजात हम