दश्त-ए-ग़ुर्बत है तो वो क्यूँ हैं ख़फ़ा हम से बहुत हम दुखी बैठे हैं लग चल न सबा हम से बहुत क्या है दामन में ब-जुज़ गर्द-ए-मह-ओ-साल-ए-उमीद क्यूँ उलझती है ज़माने की हवा हम से बहुत अब हम इज़हार-ए-अलम करने लगे हैं सब से अब उठाई नहीं जाती है जफ़ा हम से बहुत कौन मौसम है कि पत्थर से लहू रिसता है ख़ूँ-बहा माँगे है अब दिल की सदा हम से बहुत दाद-ए-शोरीदा-सरी पाए जो सर से गुज़रे दूर भागे है अबस मौज-ए-बला हम से बहुत कर तो दें क़िस्सा-ए-दौराँ में तिरे ग़म का बयाँ पर लहू माँगे है ये फ़िक्र-ए-रसा हम से बहुत चढ़ते सूरज के पुजारी वही निकले जो 'शहाब' करते थे तज़किरा-ए-सिदक़-ओ-सफ़ा हम से बहुत