दर-ओ-दीवार पे सदियों का असर लगता है घर में कोई नहीं होता है तो डर लगता है सोती और जागती किरनें हैं मिरी आँखों में एक जैसा ही मुझे शाम-ओ-सहर लगता है कोई आसाँ तो नहीं दर्द की मंज़िल पाना दिल की हर बात में पत्थर का जिगर लगता है फूल सब एक से दिलकश नहीं होते लेकिन उस की ज़ुल्फ़ों में हर इक फूल मगर लगता है वर्ना इक बोझ सी लगती है तलाश-ए-मंज़िल हम-सफ़र साथ अगर हो तो सफ़र लगता है जिस पे सो जाते हैं मासूम परिंदे 'सरवत' बस वही पेड़ दरख़्तों में शजर लगता है