फ़क़त लफ़्ज़ी दलीलों से कोई क़ाइल नहीं होता किताबी ज़िंदगी जीने से कुछ हासिल नहीं होता बड़ा दुश्वार हो जाता तमीज़-ए-नेक-ओ-बद करना अगर हक़ के मुक़ाबिल में कोई बातिल नहीं होता अगर तक़्सीम होती रिज़्क़ की दीनी उसूलों पर तो फिर दुनिया में कोई शख़्स भी साइल नहीं होता सदाक़त मौत की दहलीज़ पर एलान करती है मिरा जज़्बा किसी हथियार से घायल नहीं होता ज़माना देखता रहता है होंटों के तबस्सुम को मगर टूटे हुए दिल की तरफ़ माइल नहीं होता ये बुत हालात ही इंसान को बेहिस बनाते हैं वगर्ना पत्थरों जैसा किसी का दिल नहीं होता जिसे देखो वो ग़ुर्बत के कफ़न में साँस लेता है हमारे शहर में अब कोई भी क़ातिल नहीं होता यहाँ है तैरते रहना बका-ए-ज़िंदगी 'सरवत' ज़रूरत के समुंदर का कोई साहिल नहीं होता