डरा रहे हैं ये मंज़र भी अब तो घर के मुझे दिखाई ख़्वाब दिए रात भर खंडर के मुझे हर इक ग़ज़ल में मैं रोज़ाना चाँद टांकता हूँ सितारे चूमते हैं शब उतर उतर के मुझे गँवा दी उम्र उसे नज़्म कर नहीं पाया सलीक़े आते हैं वैसे तो हर हुनर के मुझे इस एक शौक़ ने मुझ को मिटा दिया यारो बस एक बार कभी देखना था मर के मुझे किनारे बैठ के करता हूँ नज़्म अश्कों को नदी सुनाती है अफ़्साने चश्म-ए-तर के मुझे मैं इक अधूरी सी तस्वीर था उदासी की किया है उस ने मुकम्मल तबाह कर के मुझे