दर-ब-दर की ख़ाक पेशानी पे मल कर आएगा घूम-फिर कर रास्ता फिर मेरे ही घर आएगा सामने आँखों के फिर यख़-बस्ता मंज़र आएगा धूप जम जाएगी आँगन में दिसम्बर आएगा शोर कैसा अपनी आहट भी न सुन पाओगे तुम इस सफ़र में ऐसा सन्नाटा तो अक्सर आएगा जिस की ख़ातिर शीशा-ए-आवाज़ रौशन है बहुत उस की जानिब से भी ख़ामोशी का पत्थर आएगा सेहन-ए-दिल में कब से तन्हाई के ख़ेमे नस्ब हैं अब न शायद मौसम-ए-हंगामा-पर्वर आएगा ज़िंदगी भर हम इसी उम्मीद पर चलते रहे अब के सहरा पार कर लें तो समुंदर आएगा मुनहदिम हो जाएगी 'अख़्तर' फ़सील-ए-इंतिशार जब नवाह-ए-जाँ में वीरानी का लश्कर आएगा