दस्तार-ए-एहतियात बचा कर न आएगा कोई भी उस गली से सुबुक-सर न आएगा बस एक जस्त और सर-ए-कू-ए-जुस्तुजू फिर रास्ते में कोई समुंदर न आएगा उड़ जाएँगे हवा में सभी नक़्श-ए-ना-तमाम और मौसम-ए-हुनर भी पलट कर न आएगा कब तक रहोगे ज़िद के अहाते में ख़ेमा-ज़न वो हद्द-ए-एहतियात से बाहर न आएगा यूँ मुतमइन हैं रास्ते सेहन-ए-सुकूत के जैसे कभी सदाओं का लश्कर न आएगा जो कुछ है वो बहुत है कि फिर इस नवाह में इक लम्हा-ए-सुकूँ भी मयस्सर न आएगा 'अख़्तर' अब इंतिज़ार की परछाइयाँ समेट इस धूप में वो मोम का पैकर न आएगा