दर्द आख़िर दर्द है आह-ओ-फ़ुग़ाँ होगा ज़रूर आग लगती है जहाँ पर भी धुआँ होगा ज़रूर मैं ज़माने से ज़माना मुझ से बरहम है मगर एक दिन अपना ज़मीन-ओ-आसमाँ होगा ज़रूर लाख लहराती रहीं ये बिजलियाँ चारों तरफ़ अंदलीबान-ए-चमन का आशियाँ होगा ज़रूर अज़्म-ए-मोहकम शर्त है रख़्त-ए-सफ़र में राह-रौ नज़्द-ए-मंज़िल एक दिन ये कारवाँ होगा ज़रूर कौन था जो फ़िक्र-ए-आलम पर अचानक छा गया हो न हो कोई हमारे दरमियाँ होगा ज़रूर क़ब्ल इस के हर क़दम आगे बढ़े ये सोच कर सर जहाँ टूटा है दीवाना वहाँ होगा ज़रूर जाएज़ा लेते रहो 'हमदम' किताब-ए-ज़ीस्त का आने वाला कल तुम्हारा इम्तिहाँ होगा ज़रूर