दर्द अश्कों में ढल भी सकता है दिल का पत्थर पिघल भी सकता है तुम से मिल कर अब आ गया है यक़ीं कोई मुझ को बदल भी सकता है दर-ए-हाकिम पे सोच कर दे सदा कासा-ए-सर उछल भी सकता है मुंतज़िर हूँ ये जानते हुए भी रास्ता वो बदल भी सकता है ले मैं हाज़िर हूँ चल उठा ख़ंजर तेरा अरमाँ निकल भी सकता है तू जो चाहे तो काएनात का ग़म मेरे साग़र में ढल भी सकता है वक़्त बदला तो ना-तवाँ दुश्मन मूँग छाती पे दल भी सकता है क्यों है मग़रूर उस बुलंदी पर तू जहाँ से फिसल भी सकता है शायरी सहल तो नहीं 'अम्बर' दम तुम्हारा निकल भी सकता है