दर्द बख़्शा गया है सहने को कैसी दुनिया मिली है रहने को क़ाफ़िया तंग है अगरचे मियाँ अश्क काफ़ी हैं हाल कहने को इतनी अच्छी नहीं है दर-ब-दरी सीना हाज़िर है तेरे रहने को हसब-ए-साबिक़ वो कह नहीं पाए हम गए थे जो बात कहने को 'नज्म' क़ाएम है ज़ब्त भी लेकिन अश्क बिफरे हुए हैं बहने को