दर्द बन कर भी दिल-ओ-जाँ में नहीं रह पाता वो सँवरता है तो इम्काँ में नहीं रह पाता फ़स्ल-ए-गुल झेल के यूँ जिस्म दरीदा तो न था चाक भी अब तो गरेबाँ में नहीं रह पाता हम्द कीजे भी तो क्या उस की कि है बर्क़-सिफ़त दो घड़ी दीदा-ए-हैराँ में नहीं रह पाता कुछ तो ग़म्ज़े भी हैं इस दुश्मन-ए-दीं के काफ़िर कुछ ये दिल भी है कि ईमाँ में नहीं रह पाता रोज़ी रोटी के सवालों में घिरा रहता हूँ दिल में जो शख़्स है अरमाँ में नहीं रह पाता