दर्द-ए-ग़म-ए-हयात का अंजाम क्या हुआ ये पूछता है अब दिल-ए-नाकाम क्या हुआ हम अंजुमन में जा के तमाशा बने रहे सर अपने बे-नियाज़ी का इल्ज़ाम क्या हुआ दामन छुड़ा के चल दिए मेरे अज़ीज़ भी मैं मक़्सद-ए-हयात में नाकाम क्या हुआ एहसास की रगों में हरारत नहीं रही सामान इस हवेली का नीलाम क्या हुआ अब मुझ से मेरा हाल कोई पूछता नहीं उस शोख़ की निगाह में नाकाम क्या हुआ इक भीड़ तेरे नक़्श-ए-क़दम पर निकल पड़ी 'क़ैसर' तू राह-ए-ज़ौक़ में बदनाम क्या हुआ