दर्द ही देता है अब वो न दवा देता है हाए कैसा वो वफ़ाओं का सिला देता है मैं ने पीने के लिए हाथ बढ़ाया कब था अपने हाथों से कोई आ के पिला देता है गिरने लगते हैं अगर अश्क मिरी आँखों से अपना दामन कोई चुपके से बढ़ा देता है जिस ने इक बार भी देखी है तजल्ली तेरी सारे आलम को वो नज़रों से गिरा देता है उन की ख़ुशियों पे ही मौक़ूफ़ नहीं अपनी ख़ुशी उन का बख़्शा हुआ हर ग़म भी मज़ा देता है आरज़ू ये है कि मैं होश में आऊँ न कभी अपनी हाथों से वो दामन की हवा देता है क्यों समझते हो 'हबीब' अश्क को तुम मेरे हक़ीर ये मिरे क़ल्ब के तूफ़ाँ का पता देता है