दर्द जब दस्तरस-ए-चारागराँ से निकला हर्फ़-ए-इंकार मोहब्बत की ज़बाँ से निकला ज़िंदगानी में सभी रंग थे महरूमी के तुझ को देखा तो मैं एहसास-ए-ज़ियाँ से निकला सब ब-आसानी मिरे ख़्वाब को पढ़ लेते थे फिर तो मैं अंजुमन-ए-दिल-ज़दगाँ से निकला जज़्बा-ए-इश्क़ ने जब एड़ियाँ अपनी रगड़ीं ख़ाक उड़ाता हुआ इक दश्त वहाँ से निकला रोज़न-ए-जिस्म में इक दर्द हुआ था दाख़िल आख़िर आख़िर मैं वो दरवाज़ा-ए-जाँ से निकला मुद्दतों तक मिरी तख़्ईल अमीं थी उस की और इक दिन वो मिरी हद्द-ए-गुमाँ से निकला